Sunday, May 30, 2010

गुलाम अली की दो ग़ज़लें..

गुलाम अली के बारे में मुझे मेरे एक दोस्त "सुदीप" से मालूम चला था जब मैं बारहवीं में था..उस समय गज़ल से ज्यादा लगाव नहीं था, गज़ल के नाम के पंकज उधास और जगजीत सिंह के कुछ चर्चित फ़िल्मी गज़ल सुनता था, उससे ज्यादा कुछ नहीं.उस समय डी.वी.डी नहीं आती थी, विडियो कैस्सेट आती थी, तो सुदीप के पास पता नहीं कहाँ से एक गुलाम अली के कोंसर्ट की विडियो कैस्सेट आ गयी थी, एक दिन जब वो मेरे घर आया तो वो कैस्सेट लेके आया, मैंने तो पहले कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई लेकिन फिर ऐसे ही वी.सी.पी पे लगा डाला वो कैस्सेट..पहली गज़ल कौन सी थी ये याद नहीं, लेकिन दूसरी गज़ल थी "चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है", ये सुनते ही मेरे मुह से निकला, अरे ये गाना इस आदमी ने गाया है..मेरे ये बोलते ही सुदीप ने मेरे तरफ गुस्से से देखा और कहा "ये गाना नहीं, ये गज़ल इन्होने गया है, गुलाम अली ने" :) बस उसी दिन से मैं भी गुलाम अली साहब का फैन हो गया हूँ..आज आपको उनकी दो ग़ज़लें सुनाता हूँ..

आवारगी..
ये  दिल ये पागल दिल मेरा, क्यूँ बुझगया, आवारगी..
इसदश्त में एक शहरथा, वो क्या हुआ आवारगी..


कल  शब् मुझे बे-शक्ल सी, आवाज़ ने चौका दिया..
मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा आवारगी..


इक तू की सदियों से, मेरे हम-राह भी हम-राज भी..
एक मैं की तेरे नाम से न-आश्ना, आवारगी..

ये दर्द की तन्हाइयां, ये दश्त का वीरां सफर..
हम लोग तो उकता गए,अपनी सुना आवारगी..

एक अजनबी झोंके ने जब पुछा मेरे गम का सबब..
सहरा की भीगी रेत पे, मैंने लिखी आवारगी..

लो अब दश्त-ए-शब् की, शारी वुसअतें सोने लगीं..
अब जागना होगा हमें, कब तक बता आवारगी..

कल रात तनहा चंद को, देखा था मैंने ख्वाब में..
मोहसिन मुझे रास आएगी, शायद सदा आवारगी...


कभी  किताबों में फूल रखना
कभी किताबों में फूल रखना, कभी दरख्तों पे नाम लिखना
हमें भी याद है आज तक वो नज़र से हर्फ़-ए-सलाम लिखना..

वो चंद चेहरे वो बहकी बातें,सुलगते दिन थे महकती रातें..
वो  छोर छोर से कागजों पे मोहब्बतों के पयाम लिखना

गुलाब चेहरों से दिल लगाना, वो चुपके चुपके नज़र मिलाना..
वो  आरजुओं के खवाब बुनना, वो किस्सा-ए-न-तमाम लिखना..


गई रुतों में हसन हमारा, बस एक ही तो ये मशगला था..
किसी के चेहरे को सुबहो कहना, किसी की जुल्फों को शाम लिखना ..


10 comments:

  1. लाजवाब ग़ज़ल है ... एक एक शेर जैसे एक एक अनमोल मोती ..

    ReplyDelete
  2. अपनी दिलकश आवाज़ में लचक और पेंच लाते हुए गुलाम अली जब गाते हैं तो दिल वाह-वाह कह उठता है.

    कभी उनकी ये ग़ज़लें भी सुनें १ - ऐ हुस्न-ए-लालाफाम ज़रा आँख तो मिला, और २ - बहारों को चमन याद आ गया है.

    ReplyDelete
  3. मेरी फ़ेव - चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला...

    ReplyDelete
  4. @पंकज,
    वो मेरी भी फेवरिट में से आती है :)
    ये दोनों बस इसलिए पोस्ट किया क्यूंकि कुछ पुरानी यादें थी जुड़ी हुई :)
    @निशांत,
    दोनों बेहतरीन ग़ज़लें हैं..

    ReplyDelete
  5. दोनों गज़ल काफी अच्छे हैं अभिषेक !

    ReplyDelete
  6. "कल रात तनहा चंद को, देखा था मैंने ख्वाब में..
    मोहसिन मुझे रास आएगी, शायद सदा आवारगी.."

    मुझे यह लाइन कुछ अधिक ही पसंद है.. बढ़िया दोस्त.. :)

    ReplyDelete
  7. kya kahna gulam ali sahab ka jitni bhi gajale lajwab.hum tere sahar mai aaye hai musafir ki tarah.is gajal ka koi mukabla nahi.

    ReplyDelete
  8. Gulam ali`s word is tughting and sensitive

    ReplyDelete