कहां-कहां से ढूंढ कर कभी हुश्न-ए-जाना तो कभी पैगाम-ए-मुहब्बत तो कभी नुसरत कि कव्वालिया तो कभी म्यूजिक टूडे पर आने वाले संगीतों कि श्रृखला खरीद कर लाते थे.. हम दोनो भाई जब भी बाजार जाते थे तो भैया कैसेट कि दूकान पर लपक लेते थे और मैं किताबों कि दुकान पर.. मैं 15 साल का था उस समय और भैया 17 साल के.. मगर शायद ही कभी ऐसा हुआ हो की भैया का खरीदा हुआ कोई कैसेट बेकार या फालतू निकला हो..
जब 12 साल का था तब मैं पहली बार नुसरत को सुना था.. उन दिनों चक्रधरपुर में रहते थे जो कि अब झारखंड में है.. उसे शहर कहना ठीक नहीं होगा, एक छोटा सा कस्बा था वह.. वहां मेरी मौसी नानी रहती थी और मैंने अपने मामा जी के पास नुसरता का वह एल्बम "उनकी गली में आना जाना" सुना और उनसे हमेशा के लिये मांग कर लेता आया.. मुझे याद है कि घर में नुसरत को सुनना उस समय किसी को पसंद नहीं था.. शायद ये 1994 कि घटना है.. उन्ही दिनों बैंडिट क्वीन सिनेमा आयी थी और हमारे उम्र के लड़कों के मुंह से उस सिनेमा कि चर्चा भी एक पाप जैसा समझा जाता था.. उन दिनों मैं विक्रमगंज में पापाजी के साथ था और भैय, दीदी और मम्मी पटना में थे.. एक बार जब मैं घर पहूंचा तब देखा कि भैया बैंडिट क्वीन का कैसेट खरीद रखे हैं और घर में बस नुसरत ही छाया हुआ है.. मैं तो उसका दिवाना इस कदर था कि मेरे मित्र मुझे नुसरत ही कहा करते थे.. अब भी उस जमाने के मित्र कहीं पटना की गलियों में टकरा जाते हैं तो आदाब नुसरत साहब कह कर ही अभिवादन होता है.. अब घर में भैया भी उसे खूब सुनने लगे थे और उनकी दिवानगी कुछ ऐसी हो चुकी थी कि नुसरत साहब की मॄत्यु पर 2-3 दिन तक भैया चुपचाप थे..
अब जबकी नुसरत भैया के हिटलिस्ट में था और कैसेट खरीदना भी उन्हीं के जिम्मे तो एक एक करके भारत में उपलब्ध नुसरत की सभी कव्वालियां और पाश्चात्य संगीत भैया ने घर में सजा दिये.. मुझे याद है कि एक कैसेट उन्हें नहीं मिला था जिसे मैं अब भी ढ़ूंढ़ता हूं.. "Dead Man Walking".. सोचता हूं कभी मिले तो भैया को गिफ्ट कर सकूं.. कुछ दिनों बाद मुन्ना भैया भी पटना आ गये और पत्रकारिता के शुरूवाती दिनों के संघर्ष में जुट गये.. अक्सर वो घर आते थे, और भैया और मुन्ना भैया के बीच गानों को लेकर खूब बाते होती थी.. एक तरफ कैरम और दूसरी तरफ अच्छे कर्णप्रिय गाने.. और मम्मी अपना सर पीटती थी कि पढ़ाई-लिखाई से इस सबको कोई मतलब ही नहीं है.. :)
बस यही कहना चाहूंगा, "काश कोई लौटा दे वो सुकून, चैन से भरे दिन.. गुनगुनी जाड़े की दूप, रविवार कि सुबह, जब हम सभी भाई-बहन और पापा-मम्मी साथ थे.. हर शाम कैरम का दौर चलता था.. जिसमें मैं अक्सर हारा करता था भैया से.. मगर उन्हें कैरम में डर भी मुझ से ही लगता था, क्योंकि कैरम में वो बस मुझ से ही कभी हारा करते थे.. मगर अब ये नहीं हो सकता है.. चिड़ियों के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं, अपना आशियां तलाशने को घर से उड़ चुके हैं.. मन में दुनिया को जितने का जज्बा लिये और सर पर पापा-मम्मी का आशीर्वाद लिये.."
तब तक के लिये आप बैंडिट क्वीन सिनेमा का नुसरत का यह गीत सुने..
सजना, सजना तेरे, तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।
काटूं कैसे तेरे बिना बड़ी रैना, तेरे बिना जिया नाहीं लागे ।
पलकों में बिरहा का गहना पहना
निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।
बूंदों की पायल बजी, सुनी किसी ने भी नहीं
खुद से कही जो कही, कही किसी से भी नहीं
भीगने को मन तरसेगा कब तक
चांदनी में आंसू चमकेगा कब तक
सावन आया ना ही बरसे और ना ही जाए
हो निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।
सरगम खिली प्यार की, खिलने लगी धुन कई
खुश्बू से 'पर' मांगकर उड़ चली हूं पी की गली
आंच घोले मेरी सांसों में पुरवा
डोल डोल जाए पल पल मनवा
रब जाने के ये सपने हैं या हैं साए
हो निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।
गलती से नुसरत के गाये गाने के बजाये कुछ और पॉडकास्ट कर दिया था, मगर जो भी पॉडकास्ट हुआ था उसे भी मैं नहीं हटा रहा हूं क्योंकि वो भी शानदार गाया हुआ है.. वो सारेगामापा के किसी एपिसोड में किसी पाकिस्तानी गायक द्वारा गाया हुआ है.. फिलहाल आप दोनों ही गीतों के मजे लिजिये..
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यह पोस्ट मैंने कुछ साल पहले "मेरी छोटी सी दुनिया" के लिए लिखी थी, फिलहाल एक संकलन के तौर पर इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ..
काश कोई लौटा दे वो सुकून, चैन से भरे दिन.. गुनगुनी जाड़े की दूप,...
ReplyDeleteदूप ....धूप
चैन सुकून के वे पल हर इंसान ढूंढता है ....
नुसरत जी का यह गीत बहुत अच्छा लगा ...!!
बेहद उम्दा , संगीत साहित्य की समझ मनुष्यता की पहचान है!
ReplyDeleteआनन्द आ गया!!
ReplyDeleteप्रशंसनीय ।
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