Friday, June 25, 2010

मधुबाला -ईटर्नल ब्यूटी..मेमरबल सॉंग..

आज कल पता नहीं क्यूँ हर सुबह मधुबाला के गाने लगा देता हूँ प्लेलिस्ट पे और विडियो भी यूट्यूब पे चलते ही रहता है अक्सर.वैसे भी हमें पुराने गाने सुनने की एक जबरदस्त बीमारी सी लग गयी है.ये दो गाने जो मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ वो मेरे सबसे फेवरिट गानों में से आते हैं.

पहला  गाना है फिल्म काला-पानी से,  
अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ न..



दूसरा गाना है फिल्म हावड़ा ब्रिज से..वैसे तो इस फिल्म के सारे गाने मुझे पसंद है..खास कर के वो गाना कौन भूल सकता है "आइये मेहरबान.." लेकिन आज मैं इसी फिल्म का एक दूसरा गीत पोस्ट कर रहा हूँ जो मुझे बेहद अच्छा लगता है..

देख के तेरी नज़र

Sunday, June 13, 2010

बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे - ग़ालिब और जगजीत सिंह

ग़ालिब  की गज़ल और जगजीत सिंह की आवाज़..इससे बेहतर क्या हो सकता है.सुनते हैं ग़ालिब के दो गज़ल..पहले दूरदर्शन पे मिर्ज़ा ग़ालिब दिखाया जाता था, जिसे गुलज़ार साहब ने डाईरेक्ट किया था.उसी के २ गज़ल आज आपके सामने ला रहा हूँ.


बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़  तमाशा  मेरे आगे

इक खेल है औरंग-ए-सुलेमां मेरे नज़दीक
इक  बात  है एजाज़-ए-मसीहा  मेरे  आगे

जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहाँ नहीं  हस्ती-ए-आशिया  मेरे आगे

होता है निहां  गर्द  में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक़ पे दरिया मेरे आगे

मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे ?
तू  देख  के  क्या  रंग  तेरा  मेरे  आगे

सच कहते हो, ख़ुदबीं-ओ-ख़ुद-आरा ना क्यों हूं ?
बैठा   है   बुत-ए-आईना-सीमा   मेरे    आगे  
 
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई  पैमाना-ओ-सहबा  मेरे  आगे

नफ़रत का गुमां गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा
क्यों  कर  कहूँ,  लो  नाम  ना  उसका  मेरे  आगे

इमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे  कुफ्र
क़ाबा   मेरे  पीछे  है  कलीसा  मेरे  आगे

आशिक़ हँ, पे माशूक़-फरेबी है मेरा काम
मजनूं  को  बुरा  कहती  है लैला  मेरे आगे

ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यों मर नहीं जाते
आई   शब-ए-हिजरां  की   तमन्ना   मेरे  आगे

है मौज-ज़ां इक क़ुलज़ूम-ए-ख़ूं, काश, यही हो
आता  है  अभी  देखिए  क्या-क्या   मेरे  आगे  

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आहों में तो दम है
रहने   दो   अभी  साग़र-ओ-मीना   मेरे   आगे

 हम-पेशा-ओ-हम-मशर्ब-ओ-हम-राज़  है मेरा
ग़ालिब को बुरा क्यों कहो अच्छा मेरे आगे 

[जो लाइन इटालिक(italic) में है, गाने में बस वही लाइन हैं..] 

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ़ के सर होने तक

आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रँग करूँ खून-ए-जिगर होने तक

हम ने माना के तग़कुल न करोगे लेकिन
खाक हो जाएंगे हम तुम को खबर होने तक

ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो कुज़-मर्ग-ए-इलाज
शमा हर रँग में जलती है सहर होने तक

Saturday, June 12, 2010

निशब्द सदा..ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ

जब मैं पहली बार ये गीत सुना था तो मैं तो बिलकुल स्‍तब्‍ध रह गया था.मुझे याद तो नहीं पहली बार ये गीत कब सुना था लेकिन हाँ, उस दिन से लेकर आज तक ये गीत मैं अक्सर सुनते आ रहा हूँ.एक नयी ताकत जैसे आ जाती हो इस गीत को सुनने के बाद.
भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में ये गीत एक अलग जोश पैदा करती है.

चलिए आप भी गीत का आनंद उठाइए ..
गीत की पंक्तियाँ मैं पूरा लिख नहीं पाया, इसलिए माफ कीजियेगा :)


विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,

ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...

निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,

अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
 
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
 


व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?


Friday, June 11, 2010

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया

आज इस गीत को सुनने के लिए आपसे मैं समय मांगता हूँ.. यह मांग मेरी नहीं, इस गजल की है.. चैन से बैठ कर सुनने में ही यह गजल सुकून देगा.. मेरा यह दावा है की इसे सुनने के बाद आप भी दाद दिए बिना नहीं जायेंगे.. :)

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया
इस तरह गमजदों को करार आ गया..

जैसे खुश्बू-ए-जुल्फ़ें बहार आ गई
जैसे पैगाम-ए-दीदार यार आ गया..

रूत बदलने लगी, रंग-ए-दिल देखना
रंग-ए-गुलशन से अब हाल खुलता नहीं..

जख्म छलके कोई, या कोई गुल खिला
अश्क उम्रे पे अभ्रे बहार आ गया..

जैसे खुश्बू-ए-जुल्फ़ें बहार आ गई
जैसे पैगाम-ए-दीदार यार आ गया..

खून-ए-यूं शौक से जाम भरने लगे
दिल सुलगने लगे, दाग जलने लगे..

महफ़िल-ए-दर्द फिर रंग पर आ गई
फिर शब-ए-आरजू पर निखार आ गया..

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया
इस तरह गमजदों को करार आ गया..

फ़ैज क्या जानिये, यार किस आस पर
मुंतजिर है के लायेगा कोई खबर..

महकशों पर हुये मोहतसिर मेहरबां
दिल फिगारों पे क़ातिल को प्यार आ गया..

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया
इस तरह गमजदों को करार आ गया..

Thursday, June 10, 2010

ओ रात के मुसाफिर

आज दो गाने आपके सामने पेश कर रहा हूँ, अभी ये दो गाने मेरे लैपटॉप पे कल से लगातार बज रहे हैं..उम्मीद है आपको पसंद आएगी :)
पहला गाना "ओ रात के मुसाफिर,चंदा ज़रा बता दे..", रफ़ी साहब और लता जी द्वारा गाया हुआ और हेमंत कुमार जी का संगीत..फिल्म का नाम "मिस मैरी"



दूसरा  गाना भी उसी फिल्म का है, गीत के बोल हैं "ब्रिन्दावन का किशन कन्हैया" और इसे गाया है रफ़ी साहब ने और लता जी ने..संगीत हेमंत कुमार का ..

Friday, June 4, 2010

दूरदर्शन के तीन पुराने गीत

एक समय था जब दूरदर्शन ही मनोरंजन का एक साधन था.टी.वी का मतलब ही दूरदर्शन ही होता था.कितना कुछ जानने सीखने को मिलता था दूरदर्शन से..प्रोग्राम भी एक से एक होते थे, सामाजिक,पारिवारिक और ज्ञान देने वाले प्रोग्राम.अब तो सीरियल के नाम पे पता नहीं क्या दिखाते रहते हैं टी.वी चैनल वाले.
खैर, हम आज सीरियल और प्रोग्राम के बारे में बात नहीं करेंगे, हम तो दो ऐसे गीत के बारे में बाद करेंगे जो शायद पुराने दूरदर्शन की एक पहचान बन गए हैं.हम इन्ही गीतों को देख कर बड़े हुए.बचपन की न जाने कितनी ही यादें हैं इन दो गीतों से जुडी हुई.

चलिए बिना कुछ और बातें किये सुनते हैं पहला गीत "प्यार की गंगा बहे.." इस गीत का विडियो तो मेरे पास नहीं है और नाही मुझे इन्टरनेट पे मिला..अगर आपमें से किसी के पास इस गाने की विडियो हो तो कृपया लिंक दें..



 दूसरा गीत है सदाबहार "मिले सुर मेरा तुम्हारा "



एक और गीत शायद आपको कुछ याद दिलाये....



आशा है की आपको कुछ न कुछ तो पुराने दिनों की बातें याद आयीं ही होंगी इस तीन विडियो को देख कर........ :)

Tuesday, June 1, 2010

नन्ही इशिता से सीखिए वंदे मातरम...

आज कल के आधुनिक युग में जहाँ देशप्रेम महज एक शब्द बन रह गया है, वहीँ ये नन्ही पारी इशिता से हमें सीखना चाहिए, कुछ जो सो-काल्ड मोडर्न युवक, युवतियां हैं जिन्हें अपने देश का राष्ट्र गान, गीत पाता नहीं वो सीखें इस नन्ही सी प्यारी सी इशिता से...



इशिता  के बारे में और पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें..इशिता का ब्लॉग(नन्ही पारी)