Sunday, December 12, 2010

मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम


आज संडे का दिन है, छुट्टी का..तो ये गीत सुनिए फिल्म मेरे महबूब से..गीतकार हैं शकील बदायुनी और संगीत है नौशाद का.रफ़ी साब ने गाया है इसे.
(यूट्यूब पे ये गाना मैंने अपलोड किया है) 
मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम
फिर मुझे नरगिसी आँखों का सहारा दे दे
मेरा खोया हुआ रंगीन नज़ारा दे दे ...
मेरे महबूब तुझे...
भूल सकती नहीं आँखें वो सुहाना मंज़र
जब तेरा हुस्न मेरे इश्क़ से टकराया था
और फिर राह में बिखरे थे हज़ारोँ नग़में
मैं वो नग़में तेरी आवाज़ को दे आया था
साज़-ए-दिल को उन्हीं गीतों का सहारा दे दे
मेरा खोया रंगीन नजारा दे दे...

याद है मुझको मेरी उम्र की पहली वो घड़ी
तेरी आँखों से कोई जाम पिया था मैने
मेरे रग रग में कोई बर्क़ सी लहराई थी
जब तेरे मरमरी हाथों को छुआ था मैने
आ मुझे फिर उन्हीं हाथों का सहारा दे दे
मैने इक बार तेरी एक झलक देखी है
मेरी हसरत है के मैं फिर तेरा दीदार करूँ
तेरे साए को समझ कर मैं हंसीं ताजमहल
चाँदनी रात में नज़रों से तुझे प्यार करूँ
अपनी महकी हुई ज़ुल्फ़ों का सहारा दे दे

ढूँढता हूँ तुझे हर राह में हर महफ़िल में
थक गये हैं मेरी मजबूर तमन्ना के कदम
आज का दिन मेरी उम्मीद का है आखिरी दिन
कल न जाने मैं कहाँ और कहाँ तू हो सनम
दो घड़ी अपनी निगाहों का सहारा दे दे

सामने आ के ज़रा पर्दा उठा दे रुख़ से
इक यही मेरा इलाज-ए-ग़म-ए-तन्हाई है
तेरी फ़ुरक़त ने परेशान किया है मुझको
अब मिल जा के मेरी जान भी बन आई है
दिल को भूली हुई यादों का सहारा दे दे
मेरा खोया हुआ रंगीन नज़ारा दे दे...
मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम 

Wednesday, December 8, 2010

केसरिया बालम आवो नीं पधारो म्हारै देस/मेहदी हसन की आवाज में

सौजन्य अशोक पांडे जी जिन्होंने इस गीत को फेसबुक पर शेयर किया था..


Saturday, November 27, 2010

दिल चाहता है - कभी न बीते चमकीले दिन

अपने किसी खास दोस्त को याद करें और फिर ये गाना सुने..यकीन जानिये बहुत अच्छा लगेगा. बीते दिनों को याद कर के..दोस्ती पे बहुत ही खूबसूरत सा गाना एक बेहद खूबसूरत फिल्म दिल चाहता है से. 
गीतकार हैं जावेद अख्तर और संगीत दिया है -शंकर एहसान लॉय ने. 


ये गाना मैंने अभी यूट्यूब पे अपलोड किया.(फिल्म के आखिर में इसी गाने का एक और छोटा सा वर्सन है, उसे भी जोड़ा गया है इस गाने में)





दिल चाहता है दिल चाहता है
कभी ना बीतें चमकीले दिन
दिल चाहता है हम ना रहें कभी यारों के बिन
दिन दिन भर हों प्यारी बातें
झूमें शामें गायें रातें
मस्ती में रहे डूबा डूबा हमेशा समाँ
हम को राहों में यूँ ही मिलती रहें खुशियाँ
दिल चाहता है कभी ना बीतें चमकीले दिन
दिल चाहता है हम ना रहें कभी यारों के बिन

जगमगाते हैं झिलमिलाते हैं अपने रास्ते
ये खुशी रहे रोशनी रहे अपने वास्ते


जहाँ रुकें हम जहाँ भी जाएं
जो हम चाहें वो हम पाएं
मस्ती में रहे डूबा ...

कैसा अजब ये सफ़र है सोचो तो हर इक ही बेखबर है
उस को जाना किधर है जो वक़्त आए जाने क्या दिखाए

दिल चाहता है दिल चाहता है
दिन दिन भर हों ...

ओ ओ दिल चाहता है दिल चाहता है

दिल चाहता है कभी ना बीतें चमकीले दिन
दिल चाहता है हम ना रहें कभी यारों के बिन
दिन दिन भर हों प्यारी बातें
झूमें शामें गायें रातें
मस्ती में रहे डूबा डूबा हमेशा समाँ
हमको राहों में यूँ ही मिलती रहें खुशियां
दिल चाहता है कभी ना बीतें चमकीले दिन
दिल चाहता है ओ हम ना रहें कभी यारों के बिन

जगमगाते हैं झिलमिलाते हैं अपने रास्ते
ये खुशी रहे रोशनी रहे अपने वास्ते
रंग बिरंगे मौसम आएँ नए नए वो सपने लाएँ
महकी रहें ख्वाबों की हसीं वादियाँ
खिलते रहें यूँ ही प्यार के ये गुलसिताँ
दिल चाहता है कभी ना बीतें चमकीले दिन

फिर से मिलें जो हम दीवाने तो ये समझें ये जानें
हम भी रहें यार हमारे जहाँ
आए नहीं कभी हम में कोई दूरियाँ
दिल चाहता है कभी ना बीतें ..




Monday, September 13, 2010

वो बन संवर के चले हैं घर से

ये अभी के लिए पंकज उधास की आखरी किस्त है, २ पोस्टों से लगातार आपको पंकज उधास सुना रहा हूँ, अब ये गज़ल सुन लीजिए, विडियो भी है, बड़ा ही खूबसूरत सा विडियो है.


देखिये और आनंद लीजिए,




वो बन संवर के चले हैं घर से
हैं खोए खोए से बेख़बर से
दुपट्टा ढलका हुआ है सर से
ख़ुदा बचाए बुरी नज़र से
वो बन संवर के ...

कभी जवानी की बेखुदी में
जो घर से बाहर कदम निकालो
सुनहरे गालों पे मेरी मानो
तुम एक काला सा तिल सजा लो
बदन का सोना चुरा ले सारा
कोई नज़र उठ के कब किधर से
ख़ुदा बचाए ...

ये नर्म-ओ-नाज़ुक हसीन से लब
के जैसे दो फूल हों कंवल के
ये गोरे मुखड़े पे लाल रंगत
के जैसे होली का रंग छलके
सम्भालो इन लम्बी चोटियों को
लिपट न जाएँ कहीं कमर से
ख़ुदा बचाए ...

ये शहर पत्थरों का शहर ठहरा
कहाँ मिलेगी यहाँ मोहब्बत
ये शीशे जैसा बदन तुम्हारा
मेरी दुआ है रहे सलामत
तुम्हारे सपनों की नन्हीं कलियाँ
बची रहें धूप के असर से
ख़ुदा बचाए ...

Thursday, September 9, 2010

तेरा उलझा हुआ दामन

ये आप पंकज उधास का हैंगओवर कहे या कुछ और, लेकिन कल से लगातार उन्ही के गाने, ग़ज़लें सुन रहा हूँ. आज फिर दो गीत ले के आया हूँ , आशा है की आपको पसंद आएगी.


तेरा उलझा हुआ दामन, मेरी उलझन तो नहीं
जो मेरे दिल में है शायद तेरी धड़कन तो नहीं..


यूँ यकायक मुझे बरसात की क्यों याद आई,
जो घिरा है तेरी आँखों में वो सावन तो नहीं..
जो मेरे दिल में है शायद तेरी धड़कन तो नहीं..

उसके लहराने से हस्ती के कदम काँप गए, 
जिसको कहते हैं कफ़न वो तेरा दामन तो नहीं..
जो मेरे दिल में है शायद तेरी धड़कन तो नहीं..


अपने मुखर की तुझे इनमे भला क्यों है तलाश,
मेरी  आँखें हैं तेरे सामने, दर्पण तो नहीं..
जो मेरे दिल में है शायद तेरी धड़कन तो नहीं..






अब  एक और गज़ल सुन लें पंकज उधास की आवाज़ में..

तुम न मानो मगर हकीकत है
इश्क इंसान की जरुरत है..

हुस्न  ही हुस्न, जलवे ही जलवे,
सिर्फ अहसास की जरुरत है..

इश्क इंसान की जरुरत है..


उसकी महफ़िल में बैठ कर देखो,
जिंदगी कितनी खूबसूरत है..

इश्क इंसान की जरुरत है..


जी रहा हूँ, इस एतमात के साथ,
जिंदगी को मेरी ज़रूरत है..

इश्क इंसान की जरुरत है..


तुम न मानो मगर हकीकत है,
इश्क इंसान की जरुरत है..



अगले पोस्ट में एक नयी गज़ल रहेगी पंकज उधास की..

Wednesday, September 8, 2010

निकलो न बेनकाब - पंकज उधास

गज़लों में सबसे पहले अगर किसी गज़ल गायक का मैं फैन बना तो वो पंकज उधास ही हैं, इसका कारण बस ये था की घर में पापा सुनते थे पंकज उधास की ग़ज़लें और कुछ कैसेट घर में पहले से मौजूद थीं..उनकी ये गज़ल काफी चर्चित रही है, आप सब ने सुना भी होगा कई बार, ये गज़ल मुझे खासकर के अच्छी इसलिए लगती है क्यूंकि कुछ बचपन की यादें जुड़ी हुई हैं इस गज़ल से.


बेपर्दा नज़र आयी कल जो चन्द बीबियां
अकबर ज़मीं में गैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो मैने आप का पर्दा वो क्या हुआ
कहने लगीं के अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया…

निकलो न बेनक़ाब ज़माना खराब है
और उसपे ये शबाब, ज़मान खराब है

सब कुछ हमें खबर है नसीहत न कीजिये
क्या होंगे हम खराब, ज़माना खराब है
और उसपे ये शबाब, ज़मान खराब है

पीने का दिल जो चाहे उन आँखों से पीजिए
मत पीजिए शराब, ज़माना खराब है
और उसपे ये शबाब, ज़मान खराब है






मतलब छुपा हुआ है यहां हर सवाल में
तू सोचकर जवाब, ज़माना खराब है
और उसपे ये शबाब, ज़मान खराब है

राशिद तुम आ गये हो ना आखिर फ़रेब में
कहते न थे जनाब, ज़माना खराब है
और उसपे ये शबाब, ज़मान खराब है

विडियो  देखें, पंकज उधास एक कोंसर्ट में... 

Tuesday, July 27, 2010

नए रंग लिए दो गीत

ये पोस्ट खास तौर पे सभी सलमान खान केफैन्स के लिए है :) वैसे तो अभी तक ज्यादातर मैं गज़ल या फिर पुराने गीत पोस्ट करते आया हूँ...ये गीत मेरे कुछ दोस्तों के लिए समर्पित है जिन्हें सलमान खान पसंद है..

कुछ और खास बात है दोनों गीतों में,दोनों गीतों का संगीत दिया है "जतिन-ललित" ने..जतिन-ललित मेरे नए संगीतकारों में सबसे पसंदीदा हैं.उनका दिया शायद ही कोई संगीत हो जिसे मैंने नहीं सुना है...तो आप मुझे जतिन-ललित का एक ब्लाइंड-फैन कह सकते हैं.जतिन-ललित और गीतकार समीर की जोड़ी मुझे सबसे अच्छी लगती थी..अब तो जतिन-ललित अलग हो गए, उनका आखरी संगीत था फिल्म "फ़ना" में. 

ये दोनों गीत तब के हैं, जब मैंने गीतों, फिल्मों में इंटरेस्ट लेना शुरू किया था...पहला गीत है "ओ ओ जाने-जाना..." फिल्म प्यार किया तो डरना क्या से.गायक हैं कमाल खान, और गीतकार समीर..
दूसरा  गीत है फिल्म "जब प्यार किसी से होता है" से, और गीतकार हैं "आनंद बक्शी"..गीत के बोल हैं "पहली पहली बार जब प्यार किसी से होता है.."

दोनों गीतों में संगीत है जतिन-ललित का.

ओ ओ जाने जाना..


पहली पहली बार जब प्यार किसी से होता है....

Tuesday, July 20, 2010

जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमे

आज  मैं न जाने क्यों शाम से ही कैफी आज़मी की गज़लों में डूबा हूँ....मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ..इसलिए भी आज उनके गज़लों में शाम बीती है :) अपने मुख्य ब्लॉग पे भी एक कैफी आज़मी की गज़ल आज पोस्ट की है.


ये कैफी आज़मी का लिखा हुआ गीत, फिल्म शोला और शबनम से लिया गया है..ये फिल्म भी अच्छी लगी थी, धर्मेन्द्र तो वैसे भी अपने फेवरिट अभिनेता में से हैं..


इस  गीत में संगीत दिया है खय्याम ने...और आवाज़ है रफ़ी साहब की .. 


जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमे
राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है

अब न वो प्यार न उस प्यार की यादें बाकी
आग यूँ दिल में लगी, कुछ न रहा, कुछ न बचा
जिसकी तस्वीर निगाहों में लिए बैठी हो
मैं वह दिलदार, नहीं उसकी हूँ खामोश चिता
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमे



जिंदगी हंस के गुज़रती तो बहुत अच्छा था
खैर, हँसके न सही, रो के गुज़र जायेगी
राख बरबाद मुहब्बत की बचा रखी है
बार-बार इसको जो छेड़ा तो बिखर जायेगी
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें…



आरज़ू जुर्म, वफ़ा जुर्म, तमन्ना है गुनाह
यह  वह दुनिया है जहाँ प्यार नहीं हो सकता
कैसे बाज़ार का दस्तूर तुम्हें समझाऊं
बिक गया जो वो खरीदार नहीं हो सकता



Tuesday, July 13, 2010

करोगे याद तो हर बात याद आएगी

करोगे याद तो हर बात याद आएगी
गुज़रते वक़्त की हर मौज ठहर जायेगी

ये चाँद बीते जमानों का आइना होगा
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा
उदास राह कोई दास्ता सुनाएगी
करोगे याद तो हर बात याद आएगी

बरसता भीगता मौसम धुवा धुवा होगा
पिघलती शम्मों पे दिल का मेरे गुमा होगा
हथेलियों की हीना याद कुछ दिलाएगी
करोगे याद तो हर बात याद आएगी

गली के मोड़ पे सुना सा कोई दरवाज़ा
तरसती आँखों से रास्ता किसी का देखेगा
उदास आँखों की नमी कुछ बताएगी
करोगे याद तो हर बात याद आएगी


ये  गाना मुझे बहुत पसंद है,  :) 


Monday, July 12, 2010

आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे

मैं कुछ कहूँगा नहीं, सीधे गीत पर ही आता हूँ.. आप भी सुने और मदहोश हो जाएँ.. :)

आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे, दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
आहटों से अँधेरे चमकते रहे, रात आती रही रात जाती रही

गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाईयां, दूर बजती रहीं कितनी शहनाईयां
ज़िन्दगी ज़िन्दगी को बुलाती रही, आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
आप यूँ ...

कतरा कतरा पिघलता रहा आसमान, रूह की वादियों में न जाने कहाँ
इक नदी.. इक नदी दिल रुबा गीत गाती रही
आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
आप यूँ...

आप की गर्म बाहों में खो जाऐंगे, आप की नर्म जानों पे सो जाऐंगे
मुद्दतों रात नींदें चुराती रही, आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही


एक दिन आप यूँ...

"हर किसी को लाईफ में एक बार प्यार करना चाहिए, प्यार इंसान को बहुत अच्छा बना देता है"
फिल्म - "प्यार तो होना ही था"

कितना सच है ना! प्यार ऐसा रंग भरता है की सब कुछ नया सा लगने लगता है. वही पुरानी बातें...पुराने लोग....सब इतने अच्छे लगने लगते हैं जैसे पहले कभी नहीं लगे. ऐसा ही एक गाना है, जिसमे इस एहसास को शब्दों और संगीत से इतनी खूबसूरती से सजाया गया है कोई प्यार करने वाला और प्यार करने लगे और ना करने वाला भी किसी के ख्यालों में डूब जाए.

एक दिन आप यूँ हमको मिल जायेंगे.....फूल ही फूल राहों में खिल जायेंगे...मैंने सोचा ना था!



सभी प्यार करने वालों के लिए!!!

Thursday, July 8, 2010

बूझ मेरा क्या नाम रे.....

ये गीत मुझे मेरे बचपन के सन्डे की याद दिलाता है. जी नहीं, मैं उस ज़माने में नहीं पैदा हुई थी, लेकिन सन्डे की दुपहरिया को इस फिल्म का कैसेट ज़रूर बजता था. शायद ऐसे ही कुछ गीत हैं जिसने मुझे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का मायने सिखाया. इस गीत में कितनी शालीनता से शरारत भी है, और अल्ल्हड़पन भी. जावेद अख्तर जी ने एक बार कहा था - "पहले के गीतों में आत्मा होती थी, आज कल के गीतों में सिर्फ शरीर".

Friday, June 25, 2010

मधुबाला -ईटर्नल ब्यूटी..मेमरबल सॉंग..

आज कल पता नहीं क्यूँ हर सुबह मधुबाला के गाने लगा देता हूँ प्लेलिस्ट पे और विडियो भी यूट्यूब पे चलते ही रहता है अक्सर.वैसे भी हमें पुराने गाने सुनने की एक जबरदस्त बीमारी सी लग गयी है.ये दो गाने जो मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ वो मेरे सबसे फेवरिट गानों में से आते हैं.

पहला  गाना है फिल्म काला-पानी से,  
अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ न..



दूसरा गाना है फिल्म हावड़ा ब्रिज से..वैसे तो इस फिल्म के सारे गाने मुझे पसंद है..खास कर के वो गाना कौन भूल सकता है "आइये मेहरबान.." लेकिन आज मैं इसी फिल्म का एक दूसरा गीत पोस्ट कर रहा हूँ जो मुझे बेहद अच्छा लगता है..

देख के तेरी नज़र

Sunday, June 13, 2010

बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे - ग़ालिब और जगजीत सिंह

ग़ालिब  की गज़ल और जगजीत सिंह की आवाज़..इससे बेहतर क्या हो सकता है.सुनते हैं ग़ालिब के दो गज़ल..पहले दूरदर्शन पे मिर्ज़ा ग़ालिब दिखाया जाता था, जिसे गुलज़ार साहब ने डाईरेक्ट किया था.उसी के २ गज़ल आज आपके सामने ला रहा हूँ.


बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़  तमाशा  मेरे आगे

इक खेल है औरंग-ए-सुलेमां मेरे नज़दीक
इक  बात  है एजाज़-ए-मसीहा  मेरे  आगे

जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहाँ नहीं  हस्ती-ए-आशिया  मेरे आगे

होता है निहां  गर्द  में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक़ पे दरिया मेरे आगे

मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे ?
तू  देख  के  क्या  रंग  तेरा  मेरे  आगे

सच कहते हो, ख़ुदबीं-ओ-ख़ुद-आरा ना क्यों हूं ?
बैठा   है   बुत-ए-आईना-सीमा   मेरे    आगे  
 
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई  पैमाना-ओ-सहबा  मेरे  आगे

नफ़रत का गुमां गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा
क्यों  कर  कहूँ,  लो  नाम  ना  उसका  मेरे  आगे

इमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे  कुफ्र
क़ाबा   मेरे  पीछे  है  कलीसा  मेरे  आगे

आशिक़ हँ, पे माशूक़-फरेबी है मेरा काम
मजनूं  को  बुरा  कहती  है लैला  मेरे आगे

ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यों मर नहीं जाते
आई   शब-ए-हिजरां  की   तमन्ना   मेरे  आगे

है मौज-ज़ां इक क़ुलज़ूम-ए-ख़ूं, काश, यही हो
आता  है  अभी  देखिए  क्या-क्या   मेरे  आगे  

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आहों में तो दम है
रहने   दो   अभी  साग़र-ओ-मीना   मेरे   आगे

 हम-पेशा-ओ-हम-मशर्ब-ओ-हम-राज़  है मेरा
ग़ालिब को बुरा क्यों कहो अच्छा मेरे आगे 

[जो लाइन इटालिक(italic) में है, गाने में बस वही लाइन हैं..] 

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ़ के सर होने तक

आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रँग करूँ खून-ए-जिगर होने तक

हम ने माना के तग़कुल न करोगे लेकिन
खाक हो जाएंगे हम तुम को खबर होने तक

ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो कुज़-मर्ग-ए-इलाज
शमा हर रँग में जलती है सहर होने तक

Saturday, June 12, 2010

निशब्द सदा..ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ

जब मैं पहली बार ये गीत सुना था तो मैं तो बिलकुल स्‍तब्‍ध रह गया था.मुझे याद तो नहीं पहली बार ये गीत कब सुना था लेकिन हाँ, उस दिन से लेकर आज तक ये गीत मैं अक्सर सुनते आ रहा हूँ.एक नयी ताकत जैसे आ जाती हो इस गीत को सुनने के बाद.
भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में ये गीत एक अलग जोश पैदा करती है.

चलिए आप भी गीत का आनंद उठाइए ..
गीत की पंक्तियाँ मैं पूरा लिख नहीं पाया, इसलिए माफ कीजियेगा :)


विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,

ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...

निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,

अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
 
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
 


व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?


Friday, June 11, 2010

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया

आज इस गीत को सुनने के लिए आपसे मैं समय मांगता हूँ.. यह मांग मेरी नहीं, इस गजल की है.. चैन से बैठ कर सुनने में ही यह गजल सुकून देगा.. मेरा यह दावा है की इसे सुनने के बाद आप भी दाद दिए बिना नहीं जायेंगे.. :)

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया
इस तरह गमजदों को करार आ गया..

जैसे खुश्बू-ए-जुल्फ़ें बहार आ गई
जैसे पैगाम-ए-दीदार यार आ गया..

रूत बदलने लगी, रंग-ए-दिल देखना
रंग-ए-गुलशन से अब हाल खुलता नहीं..

जख्म छलके कोई, या कोई गुल खिला
अश्क उम्रे पे अभ्रे बहार आ गया..

जैसे खुश्बू-ए-जुल्फ़ें बहार आ गई
जैसे पैगाम-ए-दीदार यार आ गया..

खून-ए-यूं शौक से जाम भरने लगे
दिल सुलगने लगे, दाग जलने लगे..

महफ़िल-ए-दर्द फिर रंग पर आ गई
फिर शब-ए-आरजू पर निखार आ गया..

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया
इस तरह गमजदों को करार आ गया..

फ़ैज क्या जानिये, यार किस आस पर
मुंतजिर है के लायेगा कोई खबर..

महकशों पर हुये मोहतसिर मेहरबां
दिल फिगारों पे क़ातिल को प्यार आ गया..

आज यूं मौज दर मौज गम थम गया
इस तरह गमजदों को करार आ गया..

Thursday, June 10, 2010

ओ रात के मुसाफिर

आज दो गाने आपके सामने पेश कर रहा हूँ, अभी ये दो गाने मेरे लैपटॉप पे कल से लगातार बज रहे हैं..उम्मीद है आपको पसंद आएगी :)
पहला गाना "ओ रात के मुसाफिर,चंदा ज़रा बता दे..", रफ़ी साहब और लता जी द्वारा गाया हुआ और हेमंत कुमार जी का संगीत..फिल्म का नाम "मिस मैरी"



दूसरा  गाना भी उसी फिल्म का है, गीत के बोल हैं "ब्रिन्दावन का किशन कन्हैया" और इसे गाया है रफ़ी साहब ने और लता जी ने..संगीत हेमंत कुमार का ..

Friday, June 4, 2010

दूरदर्शन के तीन पुराने गीत

एक समय था जब दूरदर्शन ही मनोरंजन का एक साधन था.टी.वी का मतलब ही दूरदर्शन ही होता था.कितना कुछ जानने सीखने को मिलता था दूरदर्शन से..प्रोग्राम भी एक से एक होते थे, सामाजिक,पारिवारिक और ज्ञान देने वाले प्रोग्राम.अब तो सीरियल के नाम पे पता नहीं क्या दिखाते रहते हैं टी.वी चैनल वाले.
खैर, हम आज सीरियल और प्रोग्राम के बारे में बात नहीं करेंगे, हम तो दो ऐसे गीत के बारे में बाद करेंगे जो शायद पुराने दूरदर्शन की एक पहचान बन गए हैं.हम इन्ही गीतों को देख कर बड़े हुए.बचपन की न जाने कितनी ही यादें हैं इन दो गीतों से जुडी हुई.

चलिए बिना कुछ और बातें किये सुनते हैं पहला गीत "प्यार की गंगा बहे.." इस गीत का विडियो तो मेरे पास नहीं है और नाही मुझे इन्टरनेट पे मिला..अगर आपमें से किसी के पास इस गाने की विडियो हो तो कृपया लिंक दें..



 दूसरा गीत है सदाबहार "मिले सुर मेरा तुम्हारा "



एक और गीत शायद आपको कुछ याद दिलाये....



आशा है की आपको कुछ न कुछ तो पुराने दिनों की बातें याद आयीं ही होंगी इस तीन विडियो को देख कर........ :)

Tuesday, June 1, 2010

नन्ही इशिता से सीखिए वंदे मातरम...

आज कल के आधुनिक युग में जहाँ देशप्रेम महज एक शब्द बन रह गया है, वहीँ ये नन्ही पारी इशिता से हमें सीखना चाहिए, कुछ जो सो-काल्ड मोडर्न युवक, युवतियां हैं जिन्हें अपने देश का राष्ट्र गान, गीत पाता नहीं वो सीखें इस नन्ही सी प्यारी सी इशिता से...



इशिता  के बारे में और पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें..इशिता का ब्लॉग(नन्ही पारी)

Monday, May 31, 2010

जन-गण-मन

आज अपना राष्ट्रगान ही सुनाये जाता हूँ आपको इस बच्ची(YouTube पर इसे बच्ची ही बताया गया है) द्वारा..

Sunday, May 30, 2010

गुलाम अली की दो ग़ज़लें..

गुलाम अली के बारे में मुझे मेरे एक दोस्त "सुदीप" से मालूम चला था जब मैं बारहवीं में था..उस समय गज़ल से ज्यादा लगाव नहीं था, गज़ल के नाम के पंकज उधास और जगजीत सिंह के कुछ चर्चित फ़िल्मी गज़ल सुनता था, उससे ज्यादा कुछ नहीं.उस समय डी.वी.डी नहीं आती थी, विडियो कैस्सेट आती थी, तो सुदीप के पास पता नहीं कहाँ से एक गुलाम अली के कोंसर्ट की विडियो कैस्सेट आ गयी थी, एक दिन जब वो मेरे घर आया तो वो कैस्सेट लेके आया, मैंने तो पहले कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई लेकिन फिर ऐसे ही वी.सी.पी पे लगा डाला वो कैस्सेट..पहली गज़ल कौन सी थी ये याद नहीं, लेकिन दूसरी गज़ल थी "चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है", ये सुनते ही मेरे मुह से निकला, अरे ये गाना इस आदमी ने गाया है..मेरे ये बोलते ही सुदीप ने मेरे तरफ गुस्से से देखा और कहा "ये गाना नहीं, ये गज़ल इन्होने गया है, गुलाम अली ने" :) बस उसी दिन से मैं भी गुलाम अली साहब का फैन हो गया हूँ..आज आपको उनकी दो ग़ज़लें सुनाता हूँ..

आवारगी..
ये  दिल ये पागल दिल मेरा, क्यूँ बुझगया, आवारगी..
इसदश्त में एक शहरथा, वो क्या हुआ आवारगी..


कल  शब् मुझे बे-शक्ल सी, आवाज़ ने चौका दिया..
मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा आवारगी..


इक तू की सदियों से, मेरे हम-राह भी हम-राज भी..
एक मैं की तेरे नाम से न-आश्ना, आवारगी..

ये दर्द की तन्हाइयां, ये दश्त का वीरां सफर..
हम लोग तो उकता गए,अपनी सुना आवारगी..

एक अजनबी झोंके ने जब पुछा मेरे गम का सबब..
सहरा की भीगी रेत पे, मैंने लिखी आवारगी..

लो अब दश्त-ए-शब् की, शारी वुसअतें सोने लगीं..
अब जागना होगा हमें, कब तक बता आवारगी..

कल रात तनहा चंद को, देखा था मैंने ख्वाब में..
मोहसिन मुझे रास आएगी, शायद सदा आवारगी...


कभी  किताबों में फूल रखना
कभी किताबों में फूल रखना, कभी दरख्तों पे नाम लिखना
हमें भी याद है आज तक वो नज़र से हर्फ़-ए-सलाम लिखना..

वो चंद चेहरे वो बहकी बातें,सुलगते दिन थे महकती रातें..
वो  छोर छोर से कागजों पे मोहब्बतों के पयाम लिखना

गुलाब चेहरों से दिल लगाना, वो चुपके चुपके नज़र मिलाना..
वो  आरजुओं के खवाब बुनना, वो किस्सा-ए-न-तमाम लिखना..


गई रुतों में हसन हमारा, बस एक ही तो ये मशगला था..
किसी के चेहरे को सुबहो कहना, किसी की जुल्फों को शाम लिखना ..


Wednesday, May 26, 2010

पल दो पल हैं प्यार के - नुसरत और राहत कि आवाज में एक ही गीत, मगर दो अलग अंदाज

एक ही धुन पर बुने हुए यह दो गीत दो ना होते हुए भी दो हैं.. दोनों ही गानों में सिर्फ एक पैराग्राफ का अंतर है और सिर्फ आवाजों का.. वैसे यह मेरी अपनी राय है कि मुझे राहत कि आवाज ऐसी सुन कर कुछ निराशा हुई थी, उससे कुछ अधिक ही उम्मीद जो हम अक्सर लगा बैठते हैं.. आखिर लगाए भी क्यों ना, वह हमारी हर उम्मीद पर खरा जो उतरता है.. फिलहाल आप यह गीत सुने :
नुसरत कि आवाज में गाया हुआ यह गीत यहाँ सुने :

ऐसे जीवन प्यार सजाये
जैसे फूल से खुशबू आये
जाने!!
होती है जीत दिल हार के
दुनिया है सूनी बिन यार के
पल दो पल हैं प्यार के,
पल दो पल हैं प्यार के...

आँखों में छुपा हो कोई
साँसों में बसा हो कोई
जब तक जाँ है दिल से ना जाए
आंसू को छुपाने होंगे
वादे को निभाने होंगे
हो ना जुदाई, मौत भी आये

रहता है इन्तजार ही
गुलशन में एक बार ही
होते है लम्हे बहार के.
पल दो पल हैं प्यार के...

सोचे या ना सोचे कोई
चाहे या ना चाहे कोई
फूल फिजां में खिल नहीं सकते
बैरी है ज़माना यहाँ
सम्मा परवाना यहाँ
जल सकते हैं, मिल नहीं सकते

टूटे ना साथ यार का
दुनिया में नाम प्यार का
होता है तन मन वार के.
पल दो पल हैं प्यार के...

इश्क आग में कूद गया..
अक्ल बड़ी हैरान हुई,
जब बाजी ले गया प्यार..



राहत फतेह अली खान और हुमेरा चना का गाया हुआ यह गीत एक पाकिस्तानी सिनेमा "पल दो पल" नामक सिनेमा का है.. इसे यहाँ सुने :

ऐसे जीवन प्यार सजाये
जैसे फूल से खुशबू आये
जाने!!
होती है जीत दिल हार के
दुनिया है सूनी बिन यार के
पल दो पल हैं प्यार के,
पल दो पल हैं प्यार के...

जाने या ना जाने कोई
माने या ना माने कोई
दुःख-सुख मिल के साथ रहेंगे
देखे या ना देखे कोई
बोले या ना बोले कोई
हाथों में उसके हाथ रहेंगे

सपनो के पीछे भाग के
रातों को जाग जाग के
कटते हैं दिन इन्तजार के.
पल दो पल हैं प्यार के...

सोचे या ना सोचे कोई
चाहे या ना चाहे कोई
फूल फिजां में खिल नहीं सकते
बैरी है ज़माना यहाँ
सम्मा परवाना यहाँ
जल सकते हैं, मिल नहीं सकते

टूटे ना साथ यार का
दुनिया में नाम प्यार का
होता है तन मन वार के.
पल दो पल हैं प्यार के...

Saturday, May 22, 2010

कबाड़ी के कबाड़ से निकला यादों का पुलिंदा

पटना की गलियों फिर से पहूंच गया लगता हूँ जैसे.. जब मैंने इन गीतों को पहली बार सुना था उस समय मैं तुरंत ही मैट्रिक पास किया था.. कैसेट खरीदने का जिम्मा भैया के हाथों में होता था.. भैया मुझसे बस दो साल बड़े हैं, मगर उस छोटी उम्र में भी ना जाने कहां से अच्छे गीतों कि समझ उनमें पैदा हो गई थी, जबकी हमारे घर में किसी को गीतों कि शिक्षा मिली हो ऐसी कोई बात नहीं थी..

कहां-कहां से ढूंढ कर कभी हुश्न-ए-जाना तो कभी पैगाम-ए-मुहब्बत तो कभी नुसरत कि कव्वालिया तो कभी म्यूजिक टूडे पर आने वाले संगीतों कि श्रृखला खरीद कर लाते थे.. हम दोनो भाई जब भी बाजार जाते थे तो भैया कैसेट कि दूकान पर लपक लेते थे और मैं किताबों कि दुकान पर.. मैं 15 साल का था उस समय और भैया 17 साल के.. मगर शायद ही कभी ऐसा हुआ हो की भैया का खरीदा हुआ कोई कैसेट बेकार या फालतू निकला हो..

जब 12 साल का था तब मैं पहली बार नुसरत को सुना था.. उन दिनों चक्रधरपुर में रहते थे जो कि अब झारखंड में है.. उसे शहर कहना ठीक नहीं होगा, एक छोटा सा कस्बा था वह.. वहां मेरी मौसी नानी रहती थी और मैंने अपने मामा जी के पास नुसरता का वह एल्बम "उनकी गली में आना जाना" सुना और उनसे हमेशा के लिये मांग कर लेता आया.. मुझे याद है कि घर में नुसरत को सुनना उस समय किसी को पसंद नहीं था.. शायद ये 1994 कि घटना है.. उन्ही दिनों बैंडिट क्वीन सिनेमा आयी थी और हमारे उम्र के लड़कों के मुंह से उस सिनेमा कि चर्चा भी एक पाप जैसा समझा जाता था.. उन दिनों मैं विक्रमगंज में पापाजी के साथ था और भैय, दीदी और मम्मी पटना में थे.. एक बार जब मैं घर पहूंचा तब देखा कि भैया बैंडिट क्वीन का कैसेट खरीद रखे हैं और घर में बस नुसरत ही छाया हुआ है.. मैं तो उसका दिवाना इस कदर था कि मेरे मित्र मुझे नुसरत ही कहा करते थे.. अब भी उस जमाने के मित्र कहीं पटना की गलियों में टकरा जाते हैं तो आदाब नुसरत साहब कह कर ही अभिवादन होता है.. अब घर में भैया भी उसे खूब सुनने लगे थे और उनकी दिवानगी कुछ ऐसी हो चुकी थी कि नुसरत साहब की मॄत्यु पर 2-3 दिन तक भैया चुपचाप थे..

अब जबकी नुसरत भैया के हिटलिस्ट में था और कैसेट खरीदना भी उन्हीं के जिम्मे तो एक एक करके भारत में उपलब्ध नुसरत की सभी कव्वालियां और पाश्चात्य संगीत भैया ने घर में सजा दिये.. मुझे याद है कि एक कैसेट उन्हें नहीं मिला था जिसे मैं अब भी ढ़ूंढ़ता हूं.. "Dead Man Walking".. सोचता हूं कभी मिले तो भैया को गिफ्ट कर सकूं.. कुछ दिनों बाद मुन्ना भैया भी पटना आ गये और पत्रकारिता के शुरूवाती दिनों के संघर्ष में जुट गये.. अक्सर वो घर आते थे, और भैया और मुन्ना भैया के बीच गानों को लेकर खूब बाते होती थी.. एक तरफ कैरम और दूसरी तरफ अच्छे कर्णप्रिय गाने.. और मम्मी अपना सर पीटती थी कि पढ़ाई-लिखाई से इस सबको कोई मतलब ही नहीं है.. :)

बस यही कहना चाहूंगा, "काश कोई लौटा दे वो सुकून, चैन से भरे दिन.. गुनगुनी जाड़े की दूप, रविवार कि सुबह, जब हम सभी भाई-बहन और पापा-मम्मी साथ थे.. हर शाम कैरम का दौर चलता था.. जिसमें मैं अक्सर हारा करता था भैया से.. मगर उन्हें कैरम में डर भी मुझ से ही लगता था, क्योंकि कैरम में वो बस मुझ से ही कभी हारा करते थे.. मगर अब ये नहीं हो सकता है.. चिड़ियों के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं, अपना आशियां तलाशने को घर से उड़ चुके हैं.. मन में दुनिया को जितने का जज्बा लिये और सर पर पापा-मम्मी का आशीर्वाद लिये.."

तब तक के लिये आप बैंडिट क्वीन सिनेमा का नुसरत का यह गीत सुने..

सजना, सजना तेरे, तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।
काटूं कैसे तेरे बिना बड़ी रैना, तेरे बिना जिया नाहीं लागे ।

पलकों में बिरहा का गहना पहना
निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।

बूंदों की पायल बजी, सुनी किसी ने भी नहीं
खुद से कही जो कही, कही किसी से भी नहीं
भीगने को मन तरसेगा कब तक
चांदनी में आंसू चमकेगा कब तक
सावन आया ना ही बरसे और ना ही जाए
हो निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।

सरगम खिली प्‍यार की, खिलने लगी धुन कई
खुश्‍बू से 'पर' मांगकर उड़ चली हूं पी की गली
आंच घोले मेरी सांसों में पुरवा
डोल डोल जाए पल पल मनवा
रब जाने के ये सपने हैं या हैं साए
हो निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।


गलती से नुसरत के गाये गाने के बजाये कुछ और पॉडकास्ट कर दिया था, मगर जो भी पॉडकास्ट हुआ था उसे भी मैं नहीं हटा रहा हूं क्योंकि वो भी शानदार गाया हुआ है.. वो सारेगामापा के किसी एपिसोड में किसी पाकिस्तानी गायक द्वारा गाया हुआ है.. फिलहाल आप दोनों ही गीतों के मजे लिजिये..
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यह पोस्ट मैंने कुछ साल पहले "मेरी छोटी सी दुनिया" के लिए लिखी थी, फिलहाल एक संकलन के तौर पर इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ..

Friday, May 21, 2010

आया है मुझे फिर याद - कुछ ख़ास बचपन के पलों को याद दिलाता ये खूबसूरत गीत

इस ब्लॉग में मेरा ये पहला पोस्ट है.तो सोचा क्यों न आप सभी के सामने वो गीत पेश करूँ जो मैं अक्सर सुनता हूँ.इस गीत की सबसे बड़ी खासियत ये है की आप अपने बचपन के दिनों में घुमने लगेंगे गीत सुनने के बाद ;)
फिल्म देवर का ये गीत के गायक थे मुकेश. और संगीत दिया था रोशन लाल ने. रोशन लाल अभिनेता-डाइरेक्टर राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन के पिता थे. इस गाने के गीतकार थे आनंद बक्शी.

ये गीत मेरे लिए कुछ मायनो में ख़ास भी है.जब मैं बारहवीं में था तब ये गीत मैंने पहली बार सुना था और बता नहीं सकता मुझे उस वक़्त कितनी ज्यादा पसंद आयीं थी.आप भी सुने....

आया है मुझे फिर याद वो जालिम 
गुजरा जमाना बचपन का.....
हाय रे अकेले छोर के जाना
और ना आना बचपन का
आया है मुझे फिर याद वो जालिम..


वो खेल वो साथी वो झूले..
वो दौड़ के कहना आ छु ले
हम आज तलक भी ना भूलें..
वो ख्वाब सुहाना बचपन का
आया है मुझे फिर याद वो जालिम...


इसकी सबको पहचान नहीं..
ये दो दिन का मेहमान नहीं
मुश्किल है बहुत आसन नहीं..
ये प्यार भुलाना बचपन का
आया है मुझे फिर याद वो जालिम...


मिलकर रोये..फ़रियाद करें
उन बीते दिनों की याद करें..
ऐ काश कहीं मिल जाए कोई,
युं मीत पुराना बचपन का..




इस गाने का विडियो डाउनलोड करने के लिए यहाँ क्लिक करें. और इसी गाने को MP3 फॉर्मेट में डाउनलोड करने के लिए इधर क्लिक करें..


एक और गाना है, थोडा नया.. आतिफ असलम ने गया है ये गाना.
इस गाने में भी एक मिठास है, आप खुद ही सुन लें ये गाना भी..



इस गाने का भी अगर MP3 फाइल डाउनलोड करना हो तो यहाँ क्लिक करें.और अगर विडियो डाउनलोड करना हो तो इधर क्लिक करें..

और अंत में चलते चलते शुक्रिया प्रशांत का , की उसने मुझे इस ब्लॉग का एक सदस्य बनाया.. :)  

Thursday, May 20, 2010

फेंको ये किताबें...

हाँ  हाँ  यादों  में  है  अब  भी,

क्या  सुरीला  वो  जहाँ  था,
हमारे  हाथों  में  रंगीन  गुब्बारे  थे,
और  दिल  में  महकता  समां  था,
यारा  हो  मौला…

वो  तो  ख्वाबो  कि  थी  दुनिया,
वो  किताबो  कि  थी  दुनिया,
साँस  में  थे  मचलते  हुए  ज़लजले,
आँख  में  वो  सुहाना  नशा  था,
यारा  हो  मौला…

वो  ज़मीन  थी, आसमान  था,
हम  को  लेकिन  क्या  पता  था,
हम  खड़े  थे  जहाँ  पर,
उसी  के  किनारे  पर  गहरा  सा  अँधा  कुआ  था,

फिर  वो  आये  भीड़  बन  कर,
हाथ  में  थे  उनके  खंजर,
बोले  फेंको  यह  किताबे ,
और  संभालो  यह  सलाखें,
ये जो  गहरा  सा  कुआ  है, हाँ  हाँ  अँधा  तो  नहीं  है,
इस  कुए  में  है  खज़ाना, कल  कि  दुनिया  तो  यही  है,
कूद  जाओ  लेके  खंजर, काट  डालो  जो  हो  अन्दर,
तुम  ही  कल  के  हो  शिवाजी, तुम  ही  कल  के  हो  सिकंदर,

हमने  वो  ही  किया  जो  उन्होंने  कहा,
क्यूंकि  उनकी  तो  ख्वाहिश  यही  थी,
हम  नहीं  जानते  यह  भी  क्यू यह  किया?
क्यूंकि  उनकी  फरमाइश  यही  थी,
अब  हमारे  लगा  जायका  खून  का,
अब  बताओ  करे  तो  करे  क्या?
नहीं  है  कोई  जो  हमे  कुछ  बताये,
बताओ  करे  तो  करे  क्या??

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विद्यार्थियो को क्रान्ति के नाम पर बरगलाने वालो को ये तमाचा था… रोज़ कश्मीर मे आतंकवादियो और बाकी क्षेत्रो मे नक्सलवादियो के चक्कर मे आने वाले छात्रो के लिये ये एन्थेम होना चाहिये……

ये गाना ज्यादा पॉपुलर नही  हुआ… पीयूष मिश्रा के शानदार शब्द और इंडियन ओशियन का लाजवाब संगीत शायद लोगो के कानो के पार नही पहुँचा। हमारे हिन्दी समाज मे ऐसे चिल्लाते हुए गानो का ज्यादा प्रचलन भी नही है।

वेस्ट मे ऐसे कई सिंगर रहे जिन्होने वहाँ के सोते हुये समाज को जगाने की कोशिशे की। ऐसे गानो को प्रोटेस्ट सांग कहा गया और ये गाने जनता की आवाज़ बनते गये…

this_machine_kills_fascistsसाठ के दशक मे बाब डायलन ने इन गानो को एक नयी पहचान दी। उनके तकरीबन सारे गाने उस  समाज के शोषित वर्ग को सम्बोधित करते थे और उनपर होने वाली त्रासदियो को बताते थे… यहा तक कि इन्होने अमेरिका के सिविल राईट आन्दोलन मे मार्टिन लूथर किन्ग की रैलियो मे भी गाया…

वूडी एक ऐसे सिंगर थे जिन्होने वहा के फोल्क म्यूजिक को एक अलग परिभाषा दी और प्रोटेस्ट गानो को नये मायने। उनके गिटार पर लिखा होता था – This machine kills Fascists.

हाल मे ही एक फ़िल्म आयी थी – आई एम नाट देयर, जिसमे अलग अलग प्रोटेस्ट सिन्गर्स के पर्सपेक्टिव से बाब डायलन की ज़िन्दगी को दिखाया गया था। अवश्य देखे उसे..

 

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मैने ये सब क्यू लिखा?

बस इंडियन ओशियन का ये गाना सुन रहा था, इसका वीडियो जब यू ट्यूब पर ढूढा तो रिज़ल्ट अपेक्षा से बहुत ज्यादा कम दिखे… सोचा आपसे पूछू कि क्या आपने इसे सुना है??

P.S   इसी तर्ज़ पर अपने पसन्दीदा गाने भी जरूर शेयर करे……

नुसरत को समेटे हुए पांच पोस्टों का जिक्र कुछ इस तरह

शुरुवात करते हैं हिंदी युग्म कि इस पोस्ट से.. नुसरत जी से शुरू कर यहाँ गजब का समां बाँधा गया है सूफी संगीत का.. यह दो भागों में बनता हुआ है, पहले भाग से एक वाक्य कोट कर रहा हूँ यहाँ जिसमे हाफ़िज़ ने सूफी के बारे में कहा है :
"सूफ़ी कवि वह होता है जो एक प्याले में रोशनी भरता है और प्यास से पपड़ाए-सूखे तुम्हारे पवित्र हृदय के लिए उसे पी जाता है!"
इस पोस्ट में अशोक पांडे जी कहते हैं :
यह अनायास ही नहीं हुआ कि महान सूफ़ी कवि तब पैदा हुए जब समाज पर धार्मिक कट्टरवाद अपने चरम पर था. इन कवियों-गायकों की आमफ़हम भाषा की बढ़्ती लोकप्रियता से चिन्तित कठमुल्ले शासकों ने उन पर प्रतिबन्ध लगाए.
भाग दो में अशोक जी बताते हैं :
कहा जाता है कि सूफ़ीवाद ईराक़ के बसरा नगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा. भारत में इसके पहुंचने की सही सही समयावधि के बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ग़रीबनवाज़ ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती बाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में रत थे.
अधिक जानने के लिए इसके भाग एक और भाग दो को पढ़ें.. अवश्य आनंद आएगा..

हिंदी-युग्म के पॉडकास्ट वाले इस ब्लॉग पर कई नगीने छुपे हुए हैं.. अगर आप ख़ूबसूरत गानों के शौक़ीन हैं तो कभी फुरसत में बैठ आप आराम से इस ब्लॉग को देखें..

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आपको मयूर जी द्वारा प्रस्तुत इस पोस्ट को जरूर देखना चाहिए.. यहाँ वह नुसरत साहब के ही एक अन्य कव्वाली का जिक्र कर रहे हैं.. कव्वाली के बोल हैं "ये जो हल्का-हल्का सुरूर है".. जब पहली बार मैंने यह कव्वाली सुनी तब कोई १४-१५ साल का रहा होऊंगा.. वह उम्र अमूमन तेज भागते गानों को पकड़ने का उम्र होता है जिसमे धैर्य कि जरूरत ना पड़े, मगर फिर भी पूरे धैर्य के साथ लगभग बीस मिनट कि यह कव्वाली जाने कितनी ही दफा सुना होऊंगा..

कुछ बोल यहाँ डाल रहा हूँ, बाकी आप उन्ही के ब्लॉग पर जाकर पढ़े और सुने :
साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया
एय रहमत-ऐ-तमाम मेरी हर खता मुआफ़
मैं इंतिहा-ऐ-शौक में घबरा के पी गया
पीता बगैर इज़्म ये कब थी मेरी मजाल
दर-पर्दा चश्म-ऐ-यार की शह पा के पी गया
उनके ब्लॉग का लिंक यहाँ है.. सबसे नीचे वह लिखते हैं :
यदि मै कहू मुझे नुसरत फतह अली खान साहब का नशा है तो वोह ग़लत नही है, खुदा ने मेरे गले को उतना नूर नो नही दिया , पर शुक्रियाअदा करता हूँ उनका के मुझे सुन सकने लायक बनाया है ।
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हमारे नीरज रोहिल्ला भाई अक्सर दौडना छोड़ कर कव्वालियों में भी गोते लगाते रहते हैं.. नुसरत साहब कि ही एक पंजाबी कव्वाली जो बुल्ले साह का लिखा हुआ है सुनाते हुए वह कहते हैं :
मुझे बेहद अफ़सोस है कि कभी पंजाबी नहीं सीखी, मेरा ननिहाल रोहतक में था(है?)। मेरी माताजी पंजाबी बोल/समझ लेती हैं लेकिन कभी उनसे पंजाबी नहीं सीखी इसका बडा रंज है।
इस कव्वाली के कुछ बोल यहाँ नीचे दिए जा रहा हूँ, बाकी आप उनके पोस्ट पर ही जाकर गुने और सुने..
गफ़लत न कर तू, छोड जंगली बसेरा ।
पंछी वापिस घर आ गये, तेरा मन क्यों नहीं करता,
मैं तेरी तू मेरा,
यार जिन्दगी करे कुरबानी जे यार आये एक बार,
इश्क का चर्खा दुखों का पूरिया (पहाड)
उनके इस पोस्ट पर जाने के लिए यहाँ क्लिक करें..

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इसमें एक बार फिर अशोक पांडे जी को लेकर आया हूँ, उनके कबाड़ख़ाने से.. इस पर आलोक पुराणिक जी का कमेन्ट अनुसरणीय है.. वे कहते हैं :
भई वाह वाह है जी।
इस सादगी पे कौन ना मर जाये ए खुदा
राष्ट्रीय संग्रहालय को वो कबाड़खाना कहते हैं

सरजी
मैंने तो कबाड़खाने को राष्ट्रीय संग्रहालय घोषित कर दिया है।
मेरे मुताबिक उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा है.. एक से बढ़कर एक हीरे जरे हुए हैं इस कबाड़खाने में.. जिनमें मैं सिद्धेश्वर जी और अशोक जी को पढ़ना खूब पसंद करता हूँ.. एक से बढ़कर एक कविता, गजल और कव्वाली आपको यहाँ मिलेंगे.. सिर्फ आपको धैर्य के साथ ढूँढना होगा उन्हें..

इस पोस्ट में वह लेकर आये थे नुसरत साहब कि ही एक कव्वाली जिसके बोल हैं "सुन चरखे दी मिट्ठी मिट्ठी कूक".. इसे पेश करते हुए वह कहते हैं :
अपनी नातों और सूफ़ियाना क़व्वालियाओं के लिए जगतविख्यात नुसरत फ़तेह अली ख़ान अपने जीवनकाल में ही एक किंवदन्ती बन गए थे. आवाज़ के साथ उनकी जादूगरी के साथ मैं पता नहीं कितनी कितनी बार बहा हूं, रोया हूं और नितान्त अकेलेपन में भी अलौकिक साथियों से घिरा हूं.
इस पोस्ट पर जाने के लिए आपको इस लिंक से होकर गुजरना पड़ेगा..

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पिछले साल शिवम मिश्रा जी यह पोस्ट नुसरत साहब के जन्मदिन पर लेकर आये थे जो आज ही मेरे हाथ लगा और मुझे यह पोस्ट लिखने का आइडिया और मौका मिला.. इस पोस्ट में वह नुसरत साहब के जन्म, खानदान, पिता, कव्वाली और भी ना जाने क्या क्या समेत रखे हैं.. इस पोस्ट में वह लिखते हैं :
रूहानी संगीत का जिक्र सूफी संगीत की बिना अधुरा है…और सूफी संगीत उस्ताद नुसरत फ़तेह अली के बिना अधुरा है.
आपका तो पता नहीं लेकिन उनकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ मैं.. आगे बताते हैं :
उस्ताद नुसरत बेहद संजीदा इन्सान थे.बुलंदी के मुकाम पर भी नुसरत ने हमेसा सादगी से नाता रखा.कहते हैं के सूफी गाते गाते वे सूफी हो गए.वे ख़ुद भी मानते थे कि”ज्यादा सूफी सुनने और गाने से इंसान की फितरत में बेराग्य पैदा हो जाता है।
अधिक जानने के लिए के लिए आप इस लिंक पर जाएँ..

Wednesday, May 19, 2010

कार्लोस संटाना का एक गीत

अगर कोई मुझसे मेरे सबसे प्रिय गिटार वादक के बारे में पूछे तो मैं "कार्लोस संटाना" का ही नाम लूँगा.. सच पूछे तो मुझे इनके गिटार में एक मदहोशी सी महसूस होती है.. कभी-कभी सोचता हूँ की काश मैं भी इनके जैसा गिटार बजा पाता.. फिलहाल तो यह गीत सुने..



Songwriters: Jean, Wyclef; Rekow, Paul; Santana, Carlos; Hough, Marvin; Mcrae, David; Perazzo, Karl; Duplessis, Jerry

Ladies and gents
turn up your sound system to the
sound of carlos santana and the GMB
(Surprada)
Ghetto people- from the Refugee Gang

oh Maria Maria
She reminds me of a west side story
Growing up in Spanish Harlem
She's living the life just like a movie star


oh Maria Maria
She fell in love in East L.A.
To the sounds of the guitar, yeah, yeah
Played by Carlos Santana


Stop the looting, stop the shooting
Pick pocking on the corner
See as the rich is getting richer
The poorer is getting poorer


See mi y Maria on the corner
Thinking of ways to make it better
In my mailbox there's an eviction letter
Somebody just said see you later


Ahora vengo mama chula mama chula
Ahora vengo mama chula (east coast)


Ahora vengo mama chula mama chula
Ahora vengo mama chula (west coast )

oh Maria Maria
She reminds me of a west side story
Growing up in Spanish Harlem
She's living the life just like a movie star


oh Maria Maria
She fell in love in East L.A.
To the sounds of the guitar, yeah, yeah
Played by Carlos Santana

I said a la fella los colores
The streets are getting hotter
There is no water to put out the fire
Mi cosa la esperanza


Se mira Maria on the corner
Thinking of ways to make it better
Then I looked up in the sky
Hoping of days of paradise


Ahora vengo mama chula mama chula
Ahora vengo mama chula (north side)

Ahora vengo mama chula mama chula
Ahora vengo mama chula
(south side)

Ahora vengo mama chula mama chula
Ahora vengo mama chula ( world wide)

Ahora vengo mama chula mama chula
Ahora vengo mama chula ( open up ur eyes )


Maria you know you're my lover
When the wind blows I can feel you
Through the weather and even when we're apart
It feels like we're together maria
She reminds me of a west side story
Growing up in Spanish Harlem
She's living the life just like a movie star


oh Maria Maria
She fell in love in East L.A.
To the sounds of the guitar, yeah, yeah
Played by Carlos Santana

Puttin them up yo
Carlors Santana with the refugge gang
wite clef jerry my dog Mr santana GMB
yo carlos u play that guitar proud

Tuesday, May 18, 2010

शहर के दुकानदारों, कारोबार-ए-उलफ़त में

जावेद अख्तर जी का लिखा हुआ और नुसरत जी द्वारा गया गया यह गीत मेरे सबसे पसंदीदा गीतों में से एक है..

शहर के दुकानदारों कारोबार-ए-उलफ़त में
सूद क्या ज़ियाँ* क्या है, तुम न जान पाओगे
दिल के दाम कितने हैं ख़्वाब कितने मँहगे हैं
और नकद-ए-जान** क्या है तुम न जान पाओगे

*हानि **आत्मा की पूँजी

कोई कैसे मिलता है, फूल कैसे खिलता है
आँख कैसे झुकती है, साँस कैसे रुकती है
कैसे रह निकलती है, कैसे बात चलती है
शौक की ज़बाँ क्या है तुम न जान पाओगे

वस्ल* का सुकूँ क्या हैं, हिज्र का जुनूँ क्या है
हुस्न का फुसूँ** क्या है, इश्क के दुरूँ*** क्या है
तुम मरीज-ए-दानाई****, मस्लहत के शैदाई*****
राह ए गुमरहाँ क्या है तुम ना जान पाओगे

*मिलन, **जादू, ***अंदर, ****जिसे सोचने समझने का रोग हो, *****कूटनीति पसंद करने वाला

ज़ख़्म कैसे फलते हैं, दाग कैसे जलते हैं
दर्द कैसे होता है, कोई कैसे रोता है
अश्क़ क्या है नाले* क्या, दश्त क्या है छाले क्या
आह क्या फुगाँ** क्या है, तुम ना जान पाओगे

*दर्दभरी आवाज़, **फरियाद


नामुराद दिल कैसे सुबह-ओ-शाम करते हैं
कैसे जिंदा रहते हैं और कैसे मरते हैं
तुमको कब नज़र आई ग़मज़र्दों* की तनहाई
ज़ीस्त बे-अमाँ** क्या है तुम ना जान पाओगे

*दुखियारों, **असुरक्षित जीवन

जानता हूँ कि तुम को जौक-ए-शायरी* भी है
शख्सियत सजाने में इक ये माहिरी भी है
फिर भी हर्फ चुनते हो, सिर्फ लफ़्ज सुनते हो
इनके दरमियाँ क्या हैं, तुम ना जान पाओगे

*शायरी का शौक

एक नजर इधर भी दें, इस गीत में प्रयुक्त उर्दू शब्दों के अर्थ मैंने यही से लिए हैं..

आपको इस अल्बम(संगम) का वह "आफरीन-आफरीन" वाला गीत तो अब भी याद जरूर होगा.. फिलहाल इस गीत का आनंद उठायें..

Sunday, May 16, 2010

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह

कहीं कुछ मन नहीं लग रहा था.. रात बहुत हो चली थी.. एक कश मारने कि इच्छा बहुत हो रही थी.. मगर नहीं मारा.. शायद घर में होता तो लगा भी लिया होता.. मगर ना लगाऊं इस कारण से रखता ही नहीं हूं घर में.. मोबाईल उठा कर देखा.. कुछ मैसेज दोस्तों को फॉरवार्ड भी किये.. मेरे कई दोस्तों को लगता होगा कि बहुत मैसेज भेजता है, मगर सच्चाई ये है कि जब बहुत उदास होता हूं या जीवन की आपाधापी से भागने का मन करता है तब अपना ध्यान भटकाने के लिये मैसेज भेजना शुरू कर देता हूं.. फिर मोबाईल में गानों को पलटने लगा.. एक फोल्डर दिखा, "रात का सफ़र"..

इसमें जिस तरह के गाने हैं वैसे गाने मुझे रात के अंधेरे में सुनने में जाने क्यों अच्छा लगता है.. 7-8 गानों का छोटा सा कलेक्शन इस फोल्डर में दिखा.. मैंने गानों को चालू कर दिया.. आवाज इतनी कि विकास की नींद ना खुले.. मगर मैं जानता था कि वो अभी जगा ही होगा.. गाने कि शुरूवात हुई सेलिन डिओन के एक गाने से जिसके बोल थे "That's the way it is.." फिर "हमको दुश्मन कि निगाहों से ना देखा किजे.." उसके बाद गुलजार कि बारी, "खामोश सा अफ़साना.." अगले दो गीतों को मैंने आगे बढा दिया.. अब गीत सुनने का भी मन नहीं कर रहा था.. मगर गानों को बंद करने से पहले ही गुलाम अली कि आवाज कानों में पड़ी जिसे मैं नजर अंदाज करके गाने बंद नहीं कर पाया.. "किया है प्यार जिसे हमने जिंदगी की तरह.." मैं ये गाना गुलाम अली के अलावा जगजीत-चित्रा की आवाज में भी सुन चुका हूं.. एक बार किसी और की आवाज में भी सुना था ये गीत मगर याद नहीं किसकी आवाज थी.. खैर मुझे तो ये गुलाम अली के आवाज में ही अच्छा लगता है.. फिर सोने से पहले इसे 4-5 बार सुना.. घड़ी में देखा रात के 2 बज चुके थे.. फिर शायद नींद आ ही जाये सोचकर गानों को बंद करके लेट गया.. जाने फिर कब नींद आ गई..

आप फिलहाल ये गीत सुनिये.. बाकी बातें बाद में करते हैं.. और अगर आपको यह जानकारी हो कि ये गीत किसी और ने भी गाया है तो मुझे बताना ना भूलें..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..

बढा के प्यास मेरी, उसने हाथ छोड़ दिया..
वो कर रहा था मुरौव्वत भी दिल्लगी की तरह..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..

किसे खबर थी बढेगी, कुछ और तारीखी..
छुपेगा वो किसी बदली में चांदनी की तरह..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..

कभी ना सोचा था हमने कतील उसके लिये..
करेगा वो भी सितम हमपे, हर किसी की तरह..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..


गुलाम अली की आवाज में ये गीत यहां है -
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जगजीत-चित्रा की आवाज में ये गीत यहां है -

वक्त ने किया क्या हसीं सितम

कागज के फूल का गीत, गीतादत्त द्वारा गया हुआ

वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..

बेक़रार दिल, इस तरह मिले,
जिस तरह कभी हम जुदा न थे..
तुम भी खो गए, हम भी खो गए..
एक राह पर चल के दो कदम..

वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..

जायेंगे कहाँ, सूझता नहीं..
चल पड़े मगर, रास्ता नहीं..
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं..
बुन रहे हैं दिन, ख़्वाब दम-बदम

वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..