Tuesday, July 20, 2010

जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमे

आज  मैं न जाने क्यों शाम से ही कैफी आज़मी की गज़लों में डूबा हूँ....मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ..इसलिए भी आज उनके गज़लों में शाम बीती है :) अपने मुख्य ब्लॉग पे भी एक कैफी आज़मी की गज़ल आज पोस्ट की है.


ये कैफी आज़मी का लिखा हुआ गीत, फिल्म शोला और शबनम से लिया गया है..ये फिल्म भी अच्छी लगी थी, धर्मेन्द्र तो वैसे भी अपने फेवरिट अभिनेता में से हैं..


इस  गीत में संगीत दिया है खय्याम ने...और आवाज़ है रफ़ी साहब की .. 


जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमे
राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है

अब न वो प्यार न उस प्यार की यादें बाकी
आग यूँ दिल में लगी, कुछ न रहा, कुछ न बचा
जिसकी तस्वीर निगाहों में लिए बैठी हो
मैं वह दिलदार, नहीं उसकी हूँ खामोश चिता
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमे



जिंदगी हंस के गुज़रती तो बहुत अच्छा था
खैर, हँसके न सही, रो के गुज़र जायेगी
राख बरबाद मुहब्बत की बचा रखी है
बार-बार इसको जो छेड़ा तो बिखर जायेगी
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें…



आरज़ू जुर्म, वफ़ा जुर्म, तमन्ना है गुनाह
यह  वह दुनिया है जहाँ प्यार नहीं हो सकता
कैसे बाज़ार का दस्तूर तुम्हें समझाऊं
बिक गया जो वो खरीदार नहीं हो सकता



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