Thursday, July 8, 2010

बूझ मेरा क्या नाम रे.....

ये गीत मुझे मेरे बचपन के सन्डे की याद दिलाता है. जी नहीं, मैं उस ज़माने में नहीं पैदा हुई थी, लेकिन सन्डे की दुपहरिया को इस फिल्म का कैसेट ज़रूर बजता था. शायद ऐसे ही कुछ गीत हैं जिसने मुझे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का मायने सिखाया. इस गीत में कितनी शालीनता से शरारत भी है, और अल्ल्हड़पन भी. जावेद अख्तर जी ने एक बार कहा था - "पहले के गीतों में आत्मा होती थी, आज कल के गीतों में सिर्फ शरीर".

5 comments:

  1. बहुते पुरनिया पसंद है जी...हमारे जमाने में काहे दखलंदाजी करती हो.. :)


    मजाक अलग, बात सही है:

    पहले के गीतों में आत्मा होती थी, आज कल के गीतों में सिर्फ शरीर

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  2. बिलकुल...पहले के गीतों में आत्मा होती थी, :)
    ये गाना तो वन ऑफ माई फेवरिट :)

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  3. वाह भाई! आज की सुबह सुहानी हो गयी।

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  4. पहले के गीतों में आत्मा होती थी, आज कल के गीतों में सिर्फ शरीर.
    सही बात है.
    यह मेरे प्रिय गीतों में से एक है.

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